गुरुवार, 25 दिसंबर 2008

जूता का महिमा मंडन बंद करें

आज कल बुश पर फेंके गए जूते की हर जगह चर्चा है हर जगह मुसलमानों ने इसका महिमा मंडन करना शुरू कर दिया है | कोई जूते की नीलामी में लाखो डालर देने को तैयार है तो कोई अपनी लड़की की शादी करने को तैयार है
भारत में भी कुछ मुसलमान संगठनो ने खुशिया मनानी शुरू कर दिया | इस पूरे प्रसंग पर मुझे सलमान रशदी व डेनिश पत्रकार के प्रति जारी फतवे तथा उस पर बढ़ चढ़ कर बयां बाजियां याद आ रही हैं जिसमे उत्तर प्रदेश के मंत्री जी ने पत्रकार के सर काट कर लाने वाले को ५१ लाख रुपये इनाम की घोषणा की थी
इन घटनाओं पर टीका टिपण्णी के बाद कुछ सवाल के जबाब नहीं मिल रहे हैं

क्या विरोध का लोकतान्त्रिक तरीका यही है | क्या सभ्य कहे जाने वाले किसी समाज को इस प्रकार की हरकत का महिमा मंडन इसी प्रकार करना चाहिए ?
यदि उस पत्रकार ने जूते की जगह चाकू या बम फेंका गया होता तो भी दुनिया व भारत के मुसलमान और इस प्रकार के विरोध के तरीके को पसंद करने वाले हिंदू क्या इसी तरीके से खुशी का इजहार करते | क्या यह सभ्यता का तकाजा है की मेहमान बन कर आए व्यक्ति वो चाहे शत्रु ही क्यों न हो उसका विरोध जूता फेंक कर या बम फेंक कर किया जाए
यदि इसी प्रकार की घटना पाकिस्तानी प्रधान मंत्री या राष्ट्रपति के किसी भारत दौरे पर हो जाए तो कितनेमुसलमान उस जूते को जो पाक प्रधान मंत्री / राष्ट्रपति पर फेंका गया हो उसकी नीलामी या बोसा ( चुम्बन ) करनेको तैयार होंगे तथा उससे शादी का आफर देने को कितने हिंदू या मुसलमान तैयार होंगे | प्रश्न अवश्य काल्पनिकहै किंतु इसका उत्तर आसान नहीं है
मकबूल फ़िदा हुसैन की नंगी पेंटिंगों पर शिव सेना के विरोध को या किसी अन्य घटना के हिंसात्मक विरोध की हम आलोचना करते हैं तथा बुश पर फेंके गए जूते को महिमा मंडित कर विरोध के इस तरीके को जायज करार कर रहे हैं
बुश की इराक़ नीति चाहे कितनी ही बुरी क्यों न हो सद्दाम भी कोई फ़रिश्ते नहीं थे कुवैत पर आक्रमण हो चाहे कुर्द विद्रोहियों का दमन सभी पापो का अंत होना ही था चाहे उसका कोई निमित्त बने |
लेकिन इराक में घटना का भारत के लोगों के द्वारा इस प्रकार समर्थन देना और खुशी प्रकट करना शायद यह प्रकट कर रहा है की अभी हम लोगों ने लोकतान्त्रिक विरोध का तरीका सिखा नहीं है चाहे कितना ही पुराना लोकतंत्र क्यों न हो जाए | अभी सहिष्णु बन कर विरोध की ताकत का अंदाजा हमें नहीं है
यही विरोध हमें आए दिन झेलना पड़ता है क्या किसी नीति विशेष का हिंसात्मक विरोध जायज है क्या स्वन्त्रतता के संगर्ष से हमने यही सबक सीखा है

1 टिप्पणी:

Arvind Mishra ने कहा…

क्या फेंट के मारा है गुरु !