क्यों कह रहे हो तुम कि जमाना ख़राब है
आदमी भी क्या यहाँ पे कम ख़राब है
हमसे ही जमाना , ज़माने से हम नहीं
अच्छे कहाँ है हम कि जमाना ख़राब है
सर आदमी का आदमी ही काटता है यहाँ
फ़िर आदमी ही कहता है जमाना ख़राब है
दुनिया संवारने को क्या तुमने कुछ किया
जो कह रहे हो कि जमाना ख़राब है
औरो के मुंह की रोटी , आंखो के ख्वाब को
जो छिनते कहते वही , जमाना ख़राब है
क्या तुमने कभी ख़ुद के गरिबां मे है झाँका
जो हमसे कह रहे हो कि जमाना ख़राब है
क्या फैसलाकुं नजरें हाकिम ने पाई है
हर फैसले पे कहतें है जमाना ख़राब है
माना ख़राब है ये जमाना मगर कहो
किसकी वजह से ये सारा जमाना ख़राब है
फैसलाकुं -- फैसला करने वाली
शनिवार, 31 मई 2008
जीने की बात करते हो
जीने की बात करते हो रिश्तों को तोड़ कर
क्या जिन्दगी को नापोगे किस्तों में जोड़ कर
इस जिन्दगी के जोड़ , घटना , गुणा , और भाग
शिद्दत से मिलेंगे खड़े हर एक मोड़ पड़
यूं तो भला लगे है हर इक हमसफ़र हमें
पर क्या कहा कहें वह जाए है जब दिल को तोड़ कर
बदसूरती दुनिया की नहीं देखने की चाह
मुमकिन नहीं है जीना मगर आँख फोड़कर
यादों के साँप काढ़ के फ़न हैं खड़े हुए
इस जिन्दगी की हर गली कूचे के मोड़ पर
यही इस गजल की है खूबी कि हर कोई
उठ जाता बीच मे ही सुनता छोड़ कर
जीवन की पर्त - पर्त है रख दी उधेड़ कर
दिखलाये मुझे अब कोई ये पर्त जोड़ कर
क्या जिन्दगी को नापोगे किस्तों में जोड़ कर
इस जिन्दगी के जोड़ , घटना , गुणा , और भाग
शिद्दत से मिलेंगे खड़े हर एक मोड़ पड़
यूं तो भला लगे है हर इक हमसफ़र हमें
पर क्या कहा कहें वह जाए है जब दिल को तोड़ कर
बदसूरती दुनिया की नहीं देखने की चाह
मुमकिन नहीं है जीना मगर आँख फोड़कर
यादों के साँप काढ़ के फ़न हैं खड़े हुए
इस जिन्दगी की हर गली कूचे के मोड़ पर
यही इस गजल की है खूबी कि हर कोई
उठ जाता बीच मे ही सुनता छोड़ कर
जीवन की पर्त - पर्त है रख दी उधेड़ कर
दिखलाये मुझे अब कोई ये पर्त जोड़ कर
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