साधो एक दिन रात में टी वी का कार्यक्रम देखते देखते सो गया तो मुझे ऐसा आभास हुआ कीमैं राखी जी से सामाजिक मूल्यों पर उनका साक्षात्कार ले रहा हूँ इस साक्षात्कार से मेरे शरीर केहर ज्ञान चक्षु मानो खुल गए तथा सारी थकावट दूर हो गई उस सवाल जबाब का सिलसिला शुरूकरते हैं ( राखी जी से क्षमा याचना सहित कि इनकी यह फोटो फोटो राखी जी के सामाजिकप्रतिमानों के विपरीत लगे हैं )
प्रश्न --- क्या आप यह मानेंगी कि आपका अंग प्रदशन नई पीढ़ी पर दूषित प्रभाव डाल रहा है ?
राखी- (खिलखिलाते हुए) देखिए हमारे अंग प्रदर्शन का समाज के सभी वर्गों पर बडासकारात्मक असर डाल रहा है पहले बच्चों को लेते हैं- बच्चे पेड़ पर नहीं उगाए जाते, फैक्ट्री मेंनहीं ढाले जाते, बिस्तर पर बनाए जाते हैं, भोले बच्चों में स्वाभाविक जिज्ञासाएं होती हैं, वे छोटेक्यों हैं, बड़े बड़े क्यों हैं, वे इस दुनिया में कहां से आए, मां बाप , कुटुम्बी, टीचर उन्हें सही उत्तरदेना गन्दी बात समझते हैं-हमारे अंग प्रदर्शन से उन्हें काफी जानकारी मिल जाती है, जो उनके मानसिक विकासमें बहुत काम आती है। जहां तक यंग लड़के लड़कियों का प्रश्न है तो उनके लिए हमारा अंग प्रदर्शन एक वरदान है।इससे उनमें साहस और आत्मविश्वास, खासतौर से लड़कियों को तो अपनी बाडी की ताकत और कीमत का अन्दाजलग जाता है।
अब लीजिए काम धंधे में फंसे और पिसते वर्ग को तो हमारा अंग प्रदर्शन पल-भर की चैन देता है प्रदर्शन उनकेघुटन भरे जीवन में ठंडी हवा का झोंका है, तपते रेगिस्तान में शीतल छांव है। मैं एक ट्रेड सीक्रेट बताती हूं, खर्चकरने की पावर के चलते यह वर्ग हमारी इंडस्ट्री का मेन टारगेट है। मुझे इस वर्ग से बहुत ही उम्मीद रहती है जबएक मध्य वर्ग का व्यक्ति मेरे शो को ऐसे ध्यान से देखता है जैसे सत्य नारायण की व्रत कथा मे सन्कलप ले करकथा सुन रहा हो तो मुझे लगता है कि मेरा जीवन व कला के प्रति समर्पण सफ़ल हो गया
अब बात करें स्त्री की, हम उन्हें पुरुष की गुलामी से छुटकारा पाने का आसान मंत्र दे रहे हैं, शरीर के सटीक प्रयोगसे, वे जो चाहें जहां चाहें, हर चीज़ हासिल कर सकती हैं। आशिकी से लेकर नौकरी तक , ग्लैमर की दुनिया से लेकरपालिटिक्स हर जगह यह मन्त्र अमोघ बाण का काम करता है।
रही बात बुजुर्ग पीढ़ी की, उनकी छोड़िए। जब से दुनिया बनी है तभी से नई पीढ़ी के रहन-सहन, पहनने-ओढ़ने, उठने-बैठने, चलने-फिरने हर बात में माथा पीटते हैं। खुद अपने टाइम में मजे मार लिए और हमें उस मजे सेरोकते हैं। हम जानते हैं कि उम्र के चलते अंगूर खट्टे हैं वरना क्या-क्या नहीं करते। दरअसल यह जनरेशन गैप है, इसलिए हम उनकी बातों पर ध्यान नहीं देते। तरस आती है उनकी सोच पर
प्र्श्न------ लेकिन आप यह जरूर मानेंगी कि सेक्स के भौंडे प्रदर्शन से समाज में सांस्कृतिक, धार्मिक और नैतिकमूल्यों में गिरावट आ रही है।
राखी -- प्लीज माइंड योर लैंगवेज। अंग प्रदर्शन एक कला है, भौंडा वह होता है जिसके मूल में मूर्खता हो, फूहड़ताहो, अव्यवस्था हो। हमारा हर मिनि प्रदर्शन योजनानुसार आकर्षक और शानदार होता है। उसको भौंडा कहनाअपनी नासमझी ज़ाहिर करना है। मैने अभी आपको अँग प्रदर्शन के लाभ गिनाए हैं।
जहां तक आपके इन सोकाल्ड मूल्यों का सवाल है तो मेरी राय है कि आप लोग पहले अपने इन मूल्यों को मजबूतबनाइये। एक आँख मिचकाने या जरा सा बाडी हिला देने से जो मूल्य भरभरा कर गिर पड़ें, उन्हें कोई नहीं बचासकता। आप धर्म की बात कर रहे हैं, लाखों की भीड़ के बीच से नागा साधु त्रिवेणी नहाने जाते हैं। नैतिकता कादोहरापन देखिए, खजुराहो और कोणार्क की मिथुनरत मूर्तियां और पैरिस के चित्रों की तारीफ में जिनकी जुबाननहीं थकती, वही हमारी अर्धनग्नता पर नाक भौं सिकोड़ते हैं। पतन-पतन कर छाती पीटते हैं। अरे नग्नता तोनग्नता है, चाहे पत्थर में हो, कागज पर हो या सशरीर सामने हो! यदि उन्हें आपने कला का दर्जा दिया है तोआपको हमारे अंग प्रदर्शन को कला मानना ही होगा जीवित कला हा हा हा -----
प्रश्न.- मैडम बुरा न मानें आप लोगों पर नंगई इतना हाबी है कि कला जैसे पवित्र शब्द को गन्दगी में घसीट रही हैं?
राखी-(टोकते हुए) ...मैं कला में गन्दगी नहीं घसीट रही हूं, थोथी कूपमंडूकता को झिंझोड़ रही हूं। दोहरेपन कीनकाब उघाड़ रही हूं जो औरत को देखते ही बिस्तर पर बिछाने की कल्पना में डूबने उतराने लगते हैं। और ऊपर सेकला पारखी, समाज सुधारक जैसे मुखौटे लगा लेते हैं। यह दोहरा माप दन्ड नही चलेगा
प्रश्न.- आप अंग प्रदर्शन को आप किस सीमातक जायज समझती हैं ?
राखी.- जिस सीमा तक लोगों को अच्छा लगे...आप अपनी सीमा बताइये
प्रश्न. -यानी लोगों के चाहने पर आप और छोटी साईज के कपडे पहनने मे विश्वास करती है ?.
राखी- मैं समझ गयी आप अंग प्रदर्शन की सीमा को क्वांटिफाई करना चाहते हैं। देखिए यह तो आप जानते ही होंगेकि वेश्या की नग्नता कौड़ियों में बिक जाती है, जबकि हमारी अर्धनग्नता हमें लाखों-करोड़ों दिला देती है।लुकाछिपी के इस खेल में कपड़ों की सीमा जरूरत के हिसाब से घटती-बढ़ती रहती है। दरअसल यह अर्थशास्त्र काप्रश्न है, आप जितना इसको समझने की कोशिश करेंगे उतना उलझते जाएंगे। चलिए एक सूत्र देती हूं विश्व भर कीविग्यापन-दुनिया का बजट करोड़ों नहीं अरबों में है और वह समूची दुनिया औरत के कपड़े पहनने, उतारने कीबैसाखी पर टिकी है, ड्रेस का साइज उसी के मुताबिक तय होता है।
प्रश्न- लोग आपकी आलोचना करते हैं आपको इसका बुरा नहीं लगता ?
राखी- (हल्की मुस्कुराहट) बुरा लगने का तो प्रश्न ही नहीं होता, बल्कि यह तो हमारी सफलता की निशानी है।जितनी अधिक चर्चा होगी, उतनी पब्लिसिटी मिलेगी। नाम ना हुआ तो क्या बदनाम तो हुए पब्लिसिटी आगे बड़ेबड़े काम दिलाती है और फिर तरक्की की राह में रोड़े अटकाना, बढ़ते की टांग खींचना लोगों की
कठमुल्लों की न पूछिए, हर चेंज और तरक्की पर हाय-तौबा मचाना उनकी फ़ितरत है, उनका बस चलता तोइन्सान को गुफा-युग से बाहर नहीं निकलने देते, उनकी बकवास का हम कतई परवाह नहीं करते
सवाल जबाब की यह कडी बीच मे ही रह गयी क्यो कि मेरी नीद टूट गयी थी सवेरा हो चुका था और बर्तन मान्जनेवाली राखी (राख) चहिये थी सो वह राखी कहा है चिल्ला रही थी मै उस राखी की तलाश मे बाहर निकल गया था
रविवार, 27 सितंबर 2009
शुक्रवार, 18 सितंबर 2009
सरकार सुप्रीम कोर्ट समलैंगिकता
काफी पशोपेश के बाद सरकार ने उच्चतम न्यायालय के समलैंगिकता के प्रश्न पर अपना रुख स्पष्ट करने के सवालपर चुप्पी साध ली तथा कोर्ट को सहयोग करने की बात कह दी कुछ दिन पूर्व ऐसा लगता था की सरकार में बैठेलोग खास तौर से मोइली साहिब इसके बारे में स्पष्ट रूख करेंगे लेकिन लगता है की सरकार पर समलिंगी समर्थकहोने का ठप्पा न लग जाए इस कारन से और इससे वोट बैंक भी नही जुडा है इस कारन से सरकार पीछे हट गई मेरेख़याल से वोट बैंक तो बड़ा है लेकिन उसको लेकर कोई वारिस बन कर दल सामने नहीं है इस मुद्दे पर विचारक जगदीश चतुर्वेदी का यह लेखांश पठनीय व विचारणीय है
"अधिकांश राजनीतिक दल भी अपनी तलवारें लेकर मीडिया के मैदान में आ गए हैं और इस सबसे समलैंगिकताके बारे में गलत समझ पैदा की जा रही है। हिन्दी उर्दू की साझा परंपरा में दो महत्वपूर्ण लेखिकाएं हैं जिन्होंनेसमलैंगिकता के सवाल पर बेहतरीन रचनाएं लिखी हैं। उर्दू में इस्मत चुगताई ने सन 1941 में 'लिहाफ' कहानीलिखी थी और हिन्दी में पहला लेस्बियन उपन्यास आशा सहाय ने 'एकाकिनी' के नाम से 1947 में प्रकाशित कियाथा। हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार शिवपूजन सहाय ने इस उपन्यास की भूमिका लिखी थी। असल में समलैगिंकतातयशुदा लिंग विभाजन के आधार पर प्रेम की धारणा को चुनौती है। समलैंगिकों को सामाजिक व्यवस्था में सबसेज्यादा उत्पीड़न और अपमान झेलना पडता है। हमारे समाज में सेक्स और प्रेम दोनों ही उत्पीड़न करने के बहानेहैं। इसमें भी यदि समलैंगिक प्रेम है तो खैर नहीं। समलैंगिकता का देहभोग से कम और एक ही समानधर्मा लिंग केसाथ प्रेम का संबंध ज्यादा है। समलैंगिक संसार अनुभूतियों का संसार है। यह पाप या पुण्य की कोटि से परे है।यहस्वाभाविक संसार है। यह दो प्राणियों या मित्रों का मिलना है। इसी प्रसंग में 'काम' या सेक्स की भारतीय धारणा परविचार करना सही होगा। वात्स्यायन ने 'कामसूत्र' के दूसरे अध्याय में 'काम' की धारणा पेश करते हुए लिखा है '' स्पर्शविशेषविषयात्वस्याभिमाननिकसुखानुबिद्धा फलवत्यर्थ प्रतीति : प्राधान्यात्काम:।'' अर्थातचुम्बन,आलिंगन,प्रासंगिक सुख के साथ गाल,स्तन,नितम्ब आदि विशेष अंगों के स्पर्श से आनन्द की जो प्राप्तिहोती है वह 'काम' है। इस प्रसंग में ही दूसरी महत्वपूर्ण बात जो वात्स्यायन ने रेखांकित की है कि कामशास्त्र कोकिसी निपुण व्यक्ति से जानना चाहिए।
मीडिया में बार बार ऐसी बातें कही जा रही हैं जिससे यह आभास पैदा किया जा रहा है कि सेक्स तो स्वाभाविकहोता है उसके लिए शिक्षा की कोई जरूरत नहीं है,देखो पशु भी सेक्स करते हैं वे तो ज्ञान अर्जित करके सेक्स नहींकरते। वात्स्यायन ने इस धारणा को भी चुनौती दी है। वात्स्यायन का मानना था सेक्स शिक्षा प्रत्येक व्यक्ति कोदी जानी चाहिए और सेक्स शिक्षा से व्यक्ति भय,लज्जा, और पराधीनता से मुक्त होता है। आनंद ,सुखी औरसम्पन्न बनता है। मजेदार बात यह है कि जो लोग समलैंगिकता के सवाल पर गुलगपाडा मचा रहे हैं वे ही सेक्सशिक्षा का भी विरोध कर रहे हैं। वात्स्यायन के टीकाकारों ने लिखा है सेक्स शिक्षा से दायित्वबोध, परोपकार औरउदात्त भावों का जन्म होता है। अपने सहचर के प्रति श्रद्धा,विश्वास, हित कामना और अनुराग में व़ृद्धि होती है।सेक्स शिक्षा के अभाव में अनबन,कलह, असन्तोष, वेश्यावृत्ति, व्यभिचार आदि पैदा होता है। जो लोगसमलैंगिकता के सवाल पर दिल्ली उच्च न्यायालय के निर्णय से गुस्से में तनतनाए मीडिया में बोल रहे हैं अथवाइसके बुरे नतीजों के बारे में आगाह कर रहे हैं उनमें अधिकांश फंडामेंटलिस्ट हैं अथवा तथाकथित लिबरल दल केलोग हैं। फंडामेंटलिस्टों और साम्प्रदायिक संगठनों या धार्मिक संगठनो के नेताओं से सिर्फ इतना ही निवेदन है किवे कृपया अपने धर्म को जाकर संभालें ,सेक्स और प्रेम उनका क्षेत्र नहीं है।"
समलैंगिकता असल में पहचान,अनुभूति और मानवाधिकार का मामला है,यह देह व्यापार अथवा देहभोग तक हीसीमित मामला नहीं है। समलैंगिक अधिकार का सवाल मूलत: पितृसत्तात्मक विचारधारा के खिलाफ खुलीबगावत है। यह राजनीतिक नजरिया है। पुरूष वर्चस्व का विरोध करना इसका प्रधान लक्ष्य है। समलैंगिक हमेशाअपनी काम संबंधी भूमिका का अतिक्रमण करता है। समलैंगिक एक नयी परिभाषा और नयी भावानुभूति कों सामने लेकर आए हैं
यह ऐसा अनुभव है जिसे सामान्य जीवन में महसूस करना संभव नहीं है। फलत: समलैंगिक हमें असामान्यलगता है ,समाज के बाहर प्रतीत होता है।यही वह विचारधारात्मक बिंदु है जिसे दिल्ली उच्च न्यायालय ने पहचानाहै। इस प्रसंग में उल्लेखनीय है कि पहचान के सवाल जब भी उठते हैं सामाजिक हंगामा होता है परंपरापंथी सड़कोंपर आ जाते हैं। किंतु बाद में वे भी ठंडे पड़ जाते हैं। समलैंगिकता के सवाल पर भी यही होगा। समलैंगिकता सेपरिवार टूटने वाले नहीं है और युवावर्ग पथभ्रष्ट होने वाला नहीं है। दिल्ली उच्च न्यायालय का फैसला सिर्फ एकफैसला नहीं है बल्कि असाधारण फैसला हैसमलैंगिकता के सवाल पर कानूनी फैसला हजारों आत्माओं की त्रासदयात्रा के गर्भ से पैदा हुआ है। यह समलैंगिकों के लिए नव्य उदार वातावरण की मलहम है। यह लोकतांत्रिक फैसला है । इसका व्यापक स्वागत किया जाना चाहिए साथ ही इस संबंध में कानूनी फेरबदल भी किया जानाचाहिए।"
देखना है सुप्रीम कोर्ट के paale में गेंद को कौनगोल करता है सरकार तो ऑफ़ साइड हो चुकी है
जगदीश चतुर्वेदी से साभार
"अधिकांश राजनीतिक दल भी अपनी तलवारें लेकर मीडिया के मैदान में आ गए हैं और इस सबसे समलैंगिकताके बारे में गलत समझ पैदा की जा रही है। हिन्दी उर्दू की साझा परंपरा में दो महत्वपूर्ण लेखिकाएं हैं जिन्होंनेसमलैंगिकता के सवाल पर बेहतरीन रचनाएं लिखी हैं। उर्दू में इस्मत चुगताई ने सन 1941 में 'लिहाफ' कहानीलिखी थी और हिन्दी में पहला लेस्बियन उपन्यास आशा सहाय ने 'एकाकिनी' के नाम से 1947 में प्रकाशित कियाथा। हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार शिवपूजन सहाय ने इस उपन्यास की भूमिका लिखी थी। असल में समलैगिंकतातयशुदा लिंग विभाजन के आधार पर प्रेम की धारणा को चुनौती है। समलैंगिकों को सामाजिक व्यवस्था में सबसेज्यादा उत्पीड़न और अपमान झेलना पडता है। हमारे समाज में सेक्स और प्रेम दोनों ही उत्पीड़न करने के बहानेहैं। इसमें भी यदि समलैंगिक प्रेम है तो खैर नहीं। समलैंगिकता का देहभोग से कम और एक ही समानधर्मा लिंग केसाथ प्रेम का संबंध ज्यादा है। समलैंगिक संसार अनुभूतियों का संसार है। यह पाप या पुण्य की कोटि से परे है।यहस्वाभाविक संसार है। यह दो प्राणियों या मित्रों का मिलना है। इसी प्रसंग में 'काम' या सेक्स की भारतीय धारणा परविचार करना सही होगा। वात्स्यायन ने 'कामसूत्र' के दूसरे अध्याय में 'काम' की धारणा पेश करते हुए लिखा है '' स्पर्शविशेषविषयात्वस्याभिमाननिकसुखानुबिद्धा फलवत्यर्थ प्रतीति : प्राधान्यात्काम:।'' अर्थातचुम्बन,आलिंगन,प्रासंगिक सुख के साथ गाल,स्तन,नितम्ब आदि विशेष अंगों के स्पर्श से आनन्द की जो प्राप्तिहोती है वह 'काम' है। इस प्रसंग में ही दूसरी महत्वपूर्ण बात जो वात्स्यायन ने रेखांकित की है कि कामशास्त्र कोकिसी निपुण व्यक्ति से जानना चाहिए।
मीडिया में बार बार ऐसी बातें कही जा रही हैं जिससे यह आभास पैदा किया जा रहा है कि सेक्स तो स्वाभाविकहोता है उसके लिए शिक्षा की कोई जरूरत नहीं है,देखो पशु भी सेक्स करते हैं वे तो ज्ञान अर्जित करके सेक्स नहींकरते। वात्स्यायन ने इस धारणा को भी चुनौती दी है। वात्स्यायन का मानना था सेक्स शिक्षा प्रत्येक व्यक्ति कोदी जानी चाहिए और सेक्स शिक्षा से व्यक्ति भय,लज्जा, और पराधीनता से मुक्त होता है। आनंद ,सुखी औरसम्पन्न बनता है। मजेदार बात यह है कि जो लोग समलैंगिकता के सवाल पर गुलगपाडा मचा रहे हैं वे ही सेक्सशिक्षा का भी विरोध कर रहे हैं। वात्स्यायन के टीकाकारों ने लिखा है सेक्स शिक्षा से दायित्वबोध, परोपकार औरउदात्त भावों का जन्म होता है। अपने सहचर के प्रति श्रद्धा,विश्वास, हित कामना और अनुराग में व़ृद्धि होती है।सेक्स शिक्षा के अभाव में अनबन,कलह, असन्तोष, वेश्यावृत्ति, व्यभिचार आदि पैदा होता है। जो लोगसमलैंगिकता के सवाल पर दिल्ली उच्च न्यायालय के निर्णय से गुस्से में तनतनाए मीडिया में बोल रहे हैं अथवाइसके बुरे नतीजों के बारे में आगाह कर रहे हैं उनमें अधिकांश फंडामेंटलिस्ट हैं अथवा तथाकथित लिबरल दल केलोग हैं। फंडामेंटलिस्टों और साम्प्रदायिक संगठनों या धार्मिक संगठनो के नेताओं से सिर्फ इतना ही निवेदन है किवे कृपया अपने धर्म को जाकर संभालें ,सेक्स और प्रेम उनका क्षेत्र नहीं है।"
समलैंगिकता असल में पहचान,अनुभूति और मानवाधिकार का मामला है,यह देह व्यापार अथवा देहभोग तक हीसीमित मामला नहीं है। समलैंगिक अधिकार का सवाल मूलत: पितृसत्तात्मक विचारधारा के खिलाफ खुलीबगावत है। यह राजनीतिक नजरिया है। पुरूष वर्चस्व का विरोध करना इसका प्रधान लक्ष्य है। समलैंगिक हमेशाअपनी काम संबंधी भूमिका का अतिक्रमण करता है। समलैंगिक एक नयी परिभाषा और नयी भावानुभूति कों सामने लेकर आए हैं
यह ऐसा अनुभव है जिसे सामान्य जीवन में महसूस करना संभव नहीं है। फलत: समलैंगिक हमें असामान्यलगता है ,समाज के बाहर प्रतीत होता है।यही वह विचारधारात्मक बिंदु है जिसे दिल्ली उच्च न्यायालय ने पहचानाहै। इस प्रसंग में उल्लेखनीय है कि पहचान के सवाल जब भी उठते हैं सामाजिक हंगामा होता है परंपरापंथी सड़कोंपर आ जाते हैं। किंतु बाद में वे भी ठंडे पड़ जाते हैं। समलैंगिकता के सवाल पर भी यही होगा। समलैंगिकता सेपरिवार टूटने वाले नहीं है और युवावर्ग पथभ्रष्ट होने वाला नहीं है। दिल्ली उच्च न्यायालय का फैसला सिर्फ एकफैसला नहीं है बल्कि असाधारण फैसला हैसमलैंगिकता के सवाल पर कानूनी फैसला हजारों आत्माओं की त्रासदयात्रा के गर्भ से पैदा हुआ है। यह समलैंगिकों के लिए नव्य उदार वातावरण की मलहम है। यह लोकतांत्रिक फैसला है । इसका व्यापक स्वागत किया जाना चाहिए साथ ही इस संबंध में कानूनी फेरबदल भी किया जानाचाहिए।"
देखना है सुप्रीम कोर्ट के paale में गेंद को कौनगोल करता है सरकार तो ऑफ़ साइड हो चुकी है
जगदीश चतुर्वेदी से साभार
पाक ब्लागरो का भदेसपन
पूर्व के पोस्ट श्राद्ध कैसे कैसे पोस्ट कराने के बाद नेट पर घूमते घूमते एक समाचार पर नजर पड़ी की भारत पाकसीमा पर २००० वेश्याएं भारतीय फौजों के अवसाद दूर कराने के लिए लगाई जा रहीं है
इस ख़बर को पढ़ कर मैं एक बार चौंका कि माना कि सैनिक अवसाद में रहते हैं तथा आत्म हत्याएं भी करते हैंजैसा कि दुर्खिम ने अपने अध्ययन में भी यह सिध्ध किया है कि परिवार से दूर एकाकी जीवन जी रहे सैनिकों मेंआत्महत्या कि प्रवृत्ति अधिक होती है भारतीय सैनिक इसके अपवाद नहीं , लेकिन किसी देश ने सैनिकों के जीवनको बचाने के लिए ऐसा अभिनव प्रयोग किया हो ऐसा मैंने कहीं पढ़ा नहीं था
लगे हाथ जब मैं इस साईट pakalerts.wordpress.com पर गया तो पूरी ख़बर विस्तार से पढ़ी सोचने लगा किपाक सेना इसके जबाब में क्या बार्डर पर जनखों कि फौज खड़ा करेगी जिससे उनके फौजियों का मनोबल बढ़ता रहे
दूसरे दिन इस ख़बर कि हकीकत जानने के लिए जब कई साईट देखा तो पता चला कि महिला बी एस ऍफ़ के २०००महिला सैनिक इंडो पाक बार्डर पर तैनात हो रहीं हैं जिसकी प्रतिक्रिया में यह सब लिखा गया है
इसी साईट पर हिन्दुओं के कर्म काण्ड के कुछ बड़े ही घ्रृणास्पद चित्र जो लाशों के अन्तिम क्रिया के दौरान नदियों मेंया आस पास बिखेरे रहते हैं उसे दिखाया गया है इन चित्रों को प्रकाशित कराने के पीछे एक ही मकसद था हिन्दुओंके कर्म काण्ड कि खिल्ली उडाना
लेकिन यह सत्य कड़वा है हमें मृतक व्यक्तियों के अन्तिम संस्कार करने के पूर्व यह अवश्य ध्यान देना होगा किउसके अधजले अवशेष न बचे जिसे ये नाटकबाज दिखा दिखा कर किसी धर्म का मजाक न बना सके चूँकि किसीमानव कि लाश कि नुमाइश नही होनी चाहिए इसलिए हम सबको इसका विरोध इस साईट पर करना ही चाहिएवैसे इस साईट पर कमेन्ट आदि पढ़ कर ऐसा लगा कि ये जान बुझ कर हिन्दुओं को भला बुरा कहने कि धर्मान्धतासे प्रेरित है यहाँ स्वच्छ संदेश वालों को स्वच्छ संदेश देना चाहिए कि क्या इस्लाम में मृत लाशों कि बीभत्सता कोदिखने कि कोई विवशता है क्या ?????
क्या कहूँ ऐसे ओछी मानसिकता वाले पाक ब्लागरों को ......
औरों को अमृत देने का दंभ नहीं अच्छा है
अपने मन का विष यदि पच जाए तो काफ़ी है
इस ख़बर को पढ़ कर मैं एक बार चौंका कि माना कि सैनिक अवसाद में रहते हैं तथा आत्म हत्याएं भी करते हैंजैसा कि दुर्खिम ने अपने अध्ययन में भी यह सिध्ध किया है कि परिवार से दूर एकाकी जीवन जी रहे सैनिकों मेंआत्महत्या कि प्रवृत्ति अधिक होती है भारतीय सैनिक इसके अपवाद नहीं , लेकिन किसी देश ने सैनिकों के जीवनको बचाने के लिए ऐसा अभिनव प्रयोग किया हो ऐसा मैंने कहीं पढ़ा नहीं था
लगे हाथ जब मैं इस साईट pakalerts.wordpress.com पर गया तो पूरी ख़बर विस्तार से पढ़ी सोचने लगा किपाक सेना इसके जबाब में क्या बार्डर पर जनखों कि फौज खड़ा करेगी जिससे उनके फौजियों का मनोबल बढ़ता रहे
दूसरे दिन इस ख़बर कि हकीकत जानने के लिए जब कई साईट देखा तो पता चला कि महिला बी एस ऍफ़ के २०००महिला सैनिक इंडो पाक बार्डर पर तैनात हो रहीं हैं जिसकी प्रतिक्रिया में यह सब लिखा गया है
इसी साईट पर हिन्दुओं के कर्म काण्ड के कुछ बड़े ही घ्रृणास्पद चित्र जो लाशों के अन्तिम क्रिया के दौरान नदियों मेंया आस पास बिखेरे रहते हैं उसे दिखाया गया है इन चित्रों को प्रकाशित कराने के पीछे एक ही मकसद था हिन्दुओंके कर्म काण्ड कि खिल्ली उडाना
लेकिन यह सत्य कड़वा है हमें मृतक व्यक्तियों के अन्तिम संस्कार करने के पूर्व यह अवश्य ध्यान देना होगा किउसके अधजले अवशेष न बचे जिसे ये नाटकबाज दिखा दिखा कर किसी धर्म का मजाक न बना सके चूँकि किसीमानव कि लाश कि नुमाइश नही होनी चाहिए इसलिए हम सबको इसका विरोध इस साईट पर करना ही चाहिएवैसे इस साईट पर कमेन्ट आदि पढ़ कर ऐसा लगा कि ये जान बुझ कर हिन्दुओं को भला बुरा कहने कि धर्मान्धतासे प्रेरित है यहाँ स्वच्छ संदेश वालों को स्वच्छ संदेश देना चाहिए कि क्या इस्लाम में मृत लाशों कि बीभत्सता कोदिखने कि कोई विवशता है क्या ?????
क्या कहूँ ऐसे ओछी मानसिकता वाले पाक ब्लागरों को ......
औरों को अमृत देने का दंभ नहीं अच्छा है
अपने मन का विष यदि पच जाए तो काफ़ी है
गुरुवार, 10 सितंबर 2009
श्राध्ध कैसे कैसे ????
इस समय पितृपक्ष चल रहा है मान्यता है कि इस माह में पितरि लोक का द्वार खुल जाता है जिसमे पितृ लोग मृत्यु लोक में आते हैं तथा अपने पुत्रों प्रपौत्रों से श्राद्ध के रूप में पिंड दान स्वीकार करते हैं तथा ब्राहमणों को किया हुआ दान उन्हें प्राप्त होता है सभी धर्मों में अपने पूर्वजों को याद कराने के लिए उन्हें श्रद्धा देने के लिए कोई न कोई तिथि निर्धारित कि गई है हिंदू धर्म में इसके लिए एक पक्ष १५ दिनों कि व्यवस्था कि गई है
समय बदल रहा है शहरों में जिनके पिता जीवित नहीं है उसमे से कुछ लोग प्रतीकात्मक रूप से मूछ मुड़वा कर इस पक्ष कि इति श्री कर लेते हैं लेकिन वे तो हमेशा ही clean shaved सफाचट रहतें है तो पता ही नहीं चलता कि वास्तव में वे अपने पूर्वजो के सम्मान में मुछों का वलिदान किए हैं या सुंदर व पके हुए बाल छिपाने के लिए
वाराणसी हिन्दुओं का एक महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल है पिशाच मोचन नामक जगह पर इन दिनों देश के दूर दराज से आए श्रद्धालु श्राद्ध कराने के लिए आ रहे हैं तथा पंडा लोग अपने अपने मायाजाल में इन श्रद्धालुओं को मुड़ने का भी काम करते रहते हैं अब जो इतनी दूर से वाराणसी आया है कुछ तो लिहाज करेगा ही लेकिन सत्यानाश हो इन लालची पंडो का जो यजमान कि जेब देखे विना ही नाना प्रकार के अलभ्य वस्तुओं कादान का संकल्प करा कर बाद में रुपये ऐंठते हैं
अब जब दाल के भावः सराफा बाजार कालम के निकट ही दिखाते हों विश्वास न हो तो अखबार का पन्ना देखे पीली धातु के निकट ही इस पीली चीज का भावः लिखा रहता है ऐसे में यजमान दाल घी व चीनी आदि का वार्षिक खपत जो पितरों के नाम पर संकल्प कराई जा रही है उस्केव नाम पर सौ , सवा सौ दे कर अपना पिंड छुड़ाना चाहता है लेकिन ये मरदूद यजमान को भय दिखा कर इन सब चीजो के नाम पर पितरों के अशंतुष्ट होने तथा शाप देने कि बात कह कर शोषण कराने पर लगे हुए हैं
१५ दिन के लिए पुरातन काल से खाद्यान कि गारंटी प्राप्त इन पंडों को कौन समझाए कि ज़माने के हिसाब से ख़ुद को बदलिए पंडा जी अब यजमान को भी कहना पड़ रहा है कि बाबु जी को दाल घी से एलर्जी थी तथा वे तो सुखी घास कि रोटी व करेला खाते रहे सो दाल व घी का दान तो उनकी आत्मा को कष्ट ही पहुँचायेगा यजमान जनता है कि वो झूठ बोल रहा है लेकिन वो अच्छी तरह से जनता है कि पितर लोग इस लोक में आ कर महंगाई को जान चुके होंगे सो समझौता कर ही लेंगे \ और स्वर्ग हो चाहे नरक वहां तो खाद्यान का कोई संकट होगा ही नही आख़िर हमारे पूर्व खाद्य व कृषि मंत्री घास तो खोद नहीं रहे होंगे
जब एक शरद पवार हमें निराश न होने कि सलाह दे रहे हैं तो आजादी के बाद दिवंगत हुए कई मंत्री समूह स्वर्ग / नरक में अच्छी व्यवस्था तो किए ही होंगे मुझे तो लगता है कि पितर लोग इस पक्ष में खाने के लिए नहीं बल्कि हालीवुड बालीवुड में मुहूर्त में भाग लेते होंगे न कि बनारस के ट्रेफिक जाम में फंस कर धुंवा के बीच कच्चे जौ का आटा लेने आते होंगे
अरे जिन बच्चो ने जीते जी पानी नहीं पिलाया भले मरते समय डाक्टर से पानी कि बोतल चढवा दी हो उसका क्या लेना क्या लादना | बच्चे भी समझ रहे हैं इस लिए थोड़े में ही श्राद्ध निपटाना चाहते हैं अब ऐसी विकट परिस्थितियों में नीचे की कविता ही सबका मार्ग दर्शन करेगी जो बहुत पहले रीती काल में लिखी गई थी आशा है पंडा व यजमान दोनों इससे लाभान्वित होंगे तभी दोनों की व धर्म की लाज बचेगी
दाम की दाल छदाम के चाउर घी अँगुरीन लैँ दूरि दिखायो ।
दोनो सो नोन धयो कछु आनि सबै तरकारी को नाम गनायो ।
विप्र बुलाय पुरोहित को अपनी बिपता सब भाँति सुनायो ।
साहजी आज सराध कियो सो भली बिधि सोँ पुरखा फुसलायो ।
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