संस्कृत साहित्य में एक से एक गूढ़ उक्तियाँ भरी हुई हैं जिन्हें जानने के बाद किसी अन्य की सलाह बेकार लगानेलगती है संस्कृत की एक किताब हाथ में पढ़ने को आई तो भर्तृहरि का यह श्लोक मिला
तावन्महत्वं पांण्डित्यं कुलिनत्वं विवेकिता |
यावज्ज्वालितम नाङेषु हतः पंचेषुपावकः ||
अर्थात बड़प्पन , पांडित्य कुलीनता और विवेक मनुष्य में उसी समय तक रहते हैं जब तक शरीर में कामाग्नि प्रज्ज्वलित नही होती
इस अर्थ ने मुझे सभी प्रकार के हो रहे काम अनर्थो के प्रति गुण सूत्र दे दिया और एक सवाल छोड़ दिया क्यावास्तव में यह अग्नि ऐसी है जिसमे जल कर सभी गुण नष्ट हो जाते हैं व्य्वाहारविद क्या कहते हैं यह जिम्मा मैंअपने सुधी मित्रों पर छोडता हूँ जिनके पास इसका उत्तर अवश्य होगा
4 टिप्पणियां:
बढिया श्लोक..श्रंगार शतकम् से..सम्भवतः..वस्तुतः काम, क्रोध, लोभ, मोह चारो विकार ऐसे हैं जो व्यक्ति के सोचने कि क्षमता का हरण कर लेते हैं..सो यदि व्यक्ति विवेकहीन हो जाय तो क्या आश्चर्य!
किमाश्चर्यम ?
यह बात प्रथमदृष्टया ही पूर्ण सत्य लगती है। सवाल है काम की परिभाषा का। अब तो कामक्रिया में भी विवेक का प्रयोग करने सलाह दी जाती है। :)
AJIB HAI..YE KOI VISAY HI NAHI..KOI AUR ISLOK DHUDHIYE.
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