काफी पशोपेश के बाद सरकार ने उच्चतम न्यायालय के समलैंगिकता के प्रश्न पर अपना रुख स्पष्ट करने के सवालपर चुप्पी साध ली तथा कोर्ट को सहयोग करने की बात कह दी कुछ दिन पूर्व ऐसा लगता था की सरकार में बैठेलोग खास तौर से मोइली साहिब इसके बारे में स्पष्ट रूख करेंगे लेकिन लगता है की सरकार पर समलिंगी समर्थकहोने का ठप्पा न लग जाए इस कारन से और इससे वोट बैंक भी नही जुडा है इस कारन से सरकार पीछे हट गई मेरेख़याल से वोट बैंक तो बड़ा है लेकिन उसको लेकर कोई वारिस बन कर दल सामने नहीं है इस मुद्दे पर विचारक जगदीश चतुर्वेदी का यह लेखांश पठनीय व विचारणीय है
"अधिकांश राजनीतिक दल भी अपनी तलवारें लेकर मीडिया के मैदान में आ गए हैं और इस सबसे समलैंगिकताके बारे में गलत समझ पैदा की जा रही है। हिन्दी उर्दू की साझा परंपरा में दो महत्वपूर्ण लेखिकाएं हैं जिन्होंनेसमलैंगिकता के सवाल पर बेहतरीन रचनाएं लिखी हैं। उर्दू में इस्मत चुगताई ने सन 1941 में 'लिहाफ' कहानीलिखी थी और हिन्दी में पहला लेस्बियन उपन्यास आशा सहाय ने 'एकाकिनी' के नाम से 1947 में प्रकाशित कियाथा। हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार शिवपूजन सहाय ने इस उपन्यास की भूमिका लिखी थी। असल में समलैगिंकतातयशुदा लिंग विभाजन के आधार पर प्रेम की धारणा को चुनौती है। समलैंगिकों को सामाजिक व्यवस्था में सबसेज्यादा उत्पीड़न और अपमान झेलना पडता है। हमारे समाज में सेक्स और प्रेम दोनों ही उत्पीड़न करने के बहानेहैं। इसमें भी यदि समलैंगिक प्रेम है तो खैर नहीं। समलैंगिकता का देहभोग से कम और एक ही समानधर्मा लिंग केसाथ प्रेम का संबंध ज्यादा है। समलैंगिक संसार अनुभूतियों का संसार है। यह पाप या पुण्य की कोटि से परे है।यहस्वाभाविक संसार है। यह दो प्राणियों या मित्रों का मिलना है। इसी प्रसंग में 'काम' या सेक्स की भारतीय धारणा परविचार करना सही होगा। वात्स्यायन ने 'कामसूत्र' के दूसरे अध्याय में 'काम' की धारणा पेश करते हुए लिखा है '' स्पर्शविशेषविषयात्वस्याभिमाननिकसुखानुबिद्धा फलवत्यर्थ प्रतीति : प्राधान्यात्काम:।'' अर्थातचुम्बन,आलिंगन,प्रासंगिक सुख के साथ गाल,स्तन,नितम्ब आदि विशेष अंगों के स्पर्श से आनन्द की जो प्राप्तिहोती है वह 'काम' है। इस प्रसंग में ही दूसरी महत्वपूर्ण बात जो वात्स्यायन ने रेखांकित की है कि कामशास्त्र कोकिसी निपुण व्यक्ति से जानना चाहिए।
मीडिया में बार बार ऐसी बातें कही जा रही हैं जिससे यह आभास पैदा किया जा रहा है कि सेक्स तो स्वाभाविकहोता है उसके लिए शिक्षा की कोई जरूरत नहीं है,देखो पशु भी सेक्स करते हैं वे तो ज्ञान अर्जित करके सेक्स नहींकरते। वात्स्यायन ने इस धारणा को भी चुनौती दी है। वात्स्यायन का मानना था सेक्स शिक्षा प्रत्येक व्यक्ति कोदी जानी चाहिए और सेक्स शिक्षा से व्यक्ति भय,लज्जा, और पराधीनता से मुक्त होता है। आनंद ,सुखी औरसम्पन्न बनता है। मजेदार बात यह है कि जो लोग समलैंगिकता के सवाल पर गुलगपाडा मचा रहे हैं वे ही सेक्सशिक्षा का भी विरोध कर रहे हैं। वात्स्यायन के टीकाकारों ने लिखा है सेक्स शिक्षा से दायित्वबोध, परोपकार औरउदात्त भावों का जन्म होता है। अपने सहचर के प्रति श्रद्धा,विश्वास, हित कामना और अनुराग में व़ृद्धि होती है।सेक्स शिक्षा के अभाव में अनबन,कलह, असन्तोष, वेश्यावृत्ति, व्यभिचार आदि पैदा होता है। जो लोगसमलैंगिकता के सवाल पर दिल्ली उच्च न्यायालय के निर्णय से गुस्से में तनतनाए मीडिया में बोल रहे हैं अथवाइसके बुरे नतीजों के बारे में आगाह कर रहे हैं उनमें अधिकांश फंडामेंटलिस्ट हैं अथवा तथाकथित लिबरल दल केलोग हैं। फंडामेंटलिस्टों और साम्प्रदायिक संगठनों या धार्मिक संगठनो के नेताओं से सिर्फ इतना ही निवेदन है किवे कृपया अपने धर्म को जाकर संभालें ,सेक्स और प्रेम उनका क्षेत्र नहीं है।"
समलैंगिकता असल में पहचान,अनुभूति और मानवाधिकार का मामला है,यह देह व्यापार अथवा देहभोग तक हीसीमित मामला नहीं है। समलैंगिक अधिकार का सवाल मूलत: पितृसत्तात्मक विचारधारा के खिलाफ खुलीबगावत है। यह राजनीतिक नजरिया है। पुरूष वर्चस्व का विरोध करना इसका प्रधान लक्ष्य है। समलैंगिक हमेशाअपनी काम संबंधी भूमिका का अतिक्रमण करता है। समलैंगिक एक नयी परिभाषा और नयी भावानुभूति कों सामने लेकर आए हैं
यह ऐसा अनुभव है जिसे सामान्य जीवन में महसूस करना संभव नहीं है। फलत: समलैंगिक हमें असामान्यलगता है ,समाज के बाहर प्रतीत होता है।यही वह विचारधारात्मक बिंदु है जिसे दिल्ली उच्च न्यायालय ने पहचानाहै। इस प्रसंग में उल्लेखनीय है कि पहचान के सवाल जब भी उठते हैं सामाजिक हंगामा होता है परंपरापंथी सड़कोंपर आ जाते हैं। किंतु बाद में वे भी ठंडे पड़ जाते हैं। समलैंगिकता के सवाल पर भी यही होगा। समलैंगिकता सेपरिवार टूटने वाले नहीं है और युवावर्ग पथभ्रष्ट होने वाला नहीं है। दिल्ली उच्च न्यायालय का फैसला सिर्फ एकफैसला नहीं है बल्कि असाधारण फैसला हैसमलैंगिकता के सवाल पर कानूनी फैसला हजारों आत्माओं की त्रासदयात्रा के गर्भ से पैदा हुआ है। यह समलैंगिकों के लिए नव्य उदार वातावरण की मलहम है। यह लोकतांत्रिक फैसला है । इसका व्यापक स्वागत किया जाना चाहिए साथ ही इस संबंध में कानूनी फेरबदल भी किया जानाचाहिए।"
देखना है सुप्रीम कोर्ट के paale में गेंद को कौनगोल करता है सरकार तो ऑफ़ साइड हो चुकी है
जगदीश चतुर्वेदी से साभार
4 टिप्पणियां:
जगदीश चतुर्वेदी जी ने बहुत अच्छा और तार्किक लेख लिखा है। इसे यहाँ प्रस्तुत कर पढ़वाने का आभार।
समलैंगिक प्रवृत्तियाँ भी प्रकृति द्वारा कुछ विशेष मनुष्यों को प्रदान की गयी ऐसी गठरी है जिसे सिर से न उतार सकते हैं न सम्मान से धारण कर सकते हैं। इसमें हमारा समाज भी कम दोषी नहीं है।
वाह इस उद्धृत लेख के बहाने आप खुद अभिव्यक्त हुए हैं -खूबसूरत और कोमल अंदाज में ! यह आलेख ब्रेन वाश करने की ताकत रखता है ! साथ ही नजरे बार बार बाई और के स्लायिडी शो पर फिसल फिसल जा रही थीं !
बहुत् अच्छा लगा इसे पढ़कर! पढ़वाने के लिये शुक्रिया!
तार्किक लेख ....
अच्छा लगा ...!!
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