सोमवार, 7 जनवरी 2008

स्त्री मुक्ति चर्चा

स्त्री पुरुष संबंधो पर राजेंद्र यादव की बेलाग टिप्पणियो ने हिन्दी जगत में हमेशा तूफान खड़ा किया है पर उनकी बातें हमेशा सोचने को विवश करती हैं

१ स्त्री को हजारो साल से देह के सिवा कुछ नहीं माना गया सारे साहित्य कलाओं में स्त्री के सारे उपमान कुच- नितम्ब -कटि के ही मिलेंगे बहुत कम जगह स्त्री के मन की बात की गयी है जब तक स्त्री अपनी देह से बाहर नही निकलेगी उसके बारे मी खुद फैसला नहीं लेटी तब तक उसकी मुक्ति का कोई अर्थ नहीं है

२ - पुरुष ने divide and rule का पहला प्रयोग स्त्री पर ही किया इससे एक हिस्सा दुसरे हिस्से पर शासन करने में मदद करता है हमनें स्त्री को दो हिस्सों में बांटा है स्त्री कमर से उपर आनंद है कविता है कमर से नीचे स्त्री नरक का द्वार है

३- मूलतः पुरुष स्त्री से डरता है इसी लिए उसके बारे में अजीब कल्पनाएँ गढ़ता रहता है जैसे स्त्री सुपर सेक्स है स्त्री मे काम वासना आदमी से आठ गुना ज्यादा होती है पुरुष स्त्री को संतुष्ट नहीं कर सकता है इसी लिए वोह उसे कुचलता रहता है आज तक आपने कभी स्त्री की काम वासना बढ़ाने के लिए दवाओं का विज्ञापन देखा है इन्टरनेट की कुछ साइट्स अपवाद हो सकतीं
स्त्री वास्तव में हमारे लिए आज भी देह पहले है कुछ और बाद में हम उसके अंगो के लिए क्या क्या उपमानों का प्रयोग करते हैं संस्कृत में पिन पयोधरा ,बिम्बधारी क्षीण -कटी बिल्व - स्तनी सुभगा आदि
सारी संस्कृति सारी नैतिकता सारा धर्म स्त्री की देह पर ही आकर क्यों टिका हुआ है अजीब बात है स्त्री का जरा सा सरीर दिख जाए तो अश्लील है ग़लत है संस्कृति के खिलाफ है सारा धर्म और संस्कृति का ठेका सिर्फ़ स्त्री देह के ही इर्द गिर्द क्यों घूमता है समझ में नहीं आता कभी किसी पुरूष के लिए किसी ने नहीं कहा की उसकी इस हरकत से संस्कृति खतरे में है अगर आदमी बाजार में दीवार के सहारे जिप खोल कर खड़ा हो जाए तो कोई बात नहीं किंतु यदि किसी मजबूरी में औरत येही काम छिप कर भी करे तो अश्लील घनघोर अश्लील यदि आँचल से दूध पीते हुए बालक ने जरा सा आँचल हटा दिया तो स्त्री बदचलन और अश्लीलता की वाहक हो जाती है
कृपया इस पर विचार करें की ये दोहरी मानसीकता कब तक चलेगी

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