बुधवार, 30 जनवरी 2008

ब्राह्मण हूँ मैं इस तरह

मैं हिन्दू हूँ, जी हाँ एक हिन्दू,
कुछ गलत रुढ़ियों एवं प्रथाओं का एक बिन्दु,
हाँ मैं एक हिन्दू।
ना-ना-ना,
हिन्दू तक तो ठीक था, पर जानते नहीं,
मैं हिन्दू में ही हूँ, ब्राह्मण, पंडित, चंदनधारी,
अच्छे कर्मों का अधिकारी।
छूना मत मेरा भोजन वर्ना वह अपवित्र कहलाएगा,
मैं रह जाऊँगा भूखा-भूखा, जानते नहीं,
तुझे मेरा भोजन छीनने का पाप लग जाएगा।
मैं भी जानता हूँ, इस अन्न को तूने ही उगाया है,
कूट-पीसकर चावल बनाया है,
ये मिर्च व मसाले हैं तेरे खेत के,
नमक को भी तूने ही सुखाया है।
जहाँ तक है इस बरतन का सवाल,
तूने ही दिया इसको यह आकार।
कुछ भी हो तुम क्षुद्र ही तो हो,
पर मैं तुमसे ऊँचा हूँ, ब्राह्मण हूँ।
ये ठीक है इस कूप को खोदने में,
हर जीव को जल देने में,
तूने खून-पसीना एक किया,
पर अब अपना लोटा डुबा,
इस वक्त इसे ना करो अपवित्र,
पहले मुझे जल भर लेने दो,
हींकभर पी लेने दो, वर्ना
मैं जल बिन मीन हो जाऊँगा।
देखो कितनी तेज बारिश है,
मैं भीग रहा हूँ, निकलो झोपड़ी से बाहर,
मैं कैसे बैठूँ तेरे साथ, अपवित्र हो जाऊँगा।
ब्राह्मण हूँ।
मैंने कब कहा कि ये कपड़े,
जो मैंने पहने हैं, तूने नहीं बनाए,
अरे साफ कर दिए तो क्या हुआ,
यह अपवित्र हुआ ?
पर मेरे छूने से पवित्र हुआ,
मैं इतना देखता चलूँ तो पागल हो जाऊँगा,
देख ! इसे अब मत छूना, मैं ब्राह्मण हूँ।
आओ बैठो पैर दबाओ, थोड़ा ठंडा तेल लगाओ,
करो धीरे-धीरे मालिश, दूँगा तूझे ढेर आशीष,
पर तुम मुझको छूना नहीं, अपवित्र हो जाऊँगा।
ब्राह्मण हूँ।
मैं मानता हूँ, तेरे बिन मैं जी नहीं सकता,
हर वक्त, हर क्षण मुझे तेरी जरूरत है,
जबतक तू ना देता बनाकर शादी का डाल,
नहीं हो सकता मेरा शुभविवाह।
पर मैं तुमसे ऊँचा हूँ, ब्राह्मण हूँ।
मेरी माँ भी कहती थी, मेरे पैदा होने के वक्त,
तू माँ के पास रह रही थी, अरे यह क्या ?
मेरे जमीं पर गिरने के वक्त तो,
माँ दर्द से छटपटा रही थी,
उस समय तू मुझे सीने से लगाए,
प्रेम से चूमचाट रही थी।
पर देख अब मुझे मत छूना, ब्राह्मण हूँ।
मैंने धारण किए जनेऊ, माथे पर चंदन,
करूँगा प्रभु का पूजन,
पर तू कर पहले मेरा पूजन,
मैं ब्राह्मण हूँ।
मैं स्पष्ट कहता हूँ,
तेरी कृपा से ही जिंदा रहता हूँ,
पर इससे क्या, यह तेरा एहसान नहीं,
मेरा ही एहसान है तुझपर।
मैं ब्राह्मण हूँ, हूँ, हूँ। छूना मत।
अपवित्र हो जाऊँगा।
* original poem by k. p saxena "doosre"

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