लोक प्रतिनिधि की वंदना करूँ मैं बारम्बार
लोक के प्रति निष्ठां नहीं निधि से नेह अपार
बोले कुर्सी बिहंसी के हूँ वेश्या की जात
आने वाले पान खाय जाने वाले लात
सारा जग अँधा हुआ भूले भटके लोग
जोगी ढूंढे भोग को भोगी ढूंढे जोग
तन्त्रहि लोक भावे नहीं नहिं भावे लोक तंत्र ,
एक गुलामी कर रहा है दूजा परम स्वतंत्र
रोवे लोक रोटी नहिं पड़ी लंगोटी छोट ,
चाहे उनको वोट दें , चाहे उनको वोट
मोटर चमके तंत्र की बत्ती नीली लाल ।
चीखा जन नंगे हुए मेरी उतरी खाल
मारा - मारा जन फिरे , इनके उनके धाम ,
सबके निश्चित काम हैं सबके निश्चित दाम
भुला भटका जन लगे तंत्र द्वारे जाए
कुकुर मिठाई खा रहे देखि देखि ललचाय
जन जैसा निर्धन नहिं , तंत्र सरिस धनवान ,
निर्धन को धन दे प्रभु !! धन वालों को ज्ञान
अंधे युग को क्या कहूँ चढा करेला नीम ,
सबे शिखंडी हो गए क्या अर्जुन क्या भीम
पहिले जस दानी कहाँ , कहाँ दान और मान ,
sabhii सुदामा हो गए , रोवें कृपानिधान
1 टिप्पणी:
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति !आपमें कवित्व की बट बीज हैं इन्हे पनपने दीजिये नहीं तो चमडी फोड़ कर बहिरिया जायेंगे .
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