पे पर तो सिक्स कमीशन बैठ चुके किंतु रिश्वत पर एक भी नहीं |यदि कोई कमीशन बैठता तो हम भी अपनी बात कहते | जब कोई कमीशन ही नहीं बैठा तब बाबू वर्ग को छोड़ कर बाकि लोग मौज करें
मैंने कहा मुरारी लाल जी क्या चिंतन है मैं तो पे की बात कर रहा था कितना फायदा हुआ और आप घूस को ले कर रोए जा रहे है
" वेतन को मारिये गोली |वेतन से आज तक किसी का भला हुआ है जो होगा मैंने तो किसी को होते नहीं देखा तो इस पर बात करना बेकार है , घूस की बात करो घूस की , जिसे देने वाला और लेने वाला दोनों माला माल हो रहे है
घूस जिससे दिन भर में कोठी तैयार होती है तथा रात भर में लक्सारी कार | घूस जिसका दस बीस लाख खा कर अफसर मस्त रहता है करोड़ पचास लाख खा कर नेता |
छापा के बहने पर जाने पर पता चलता है की इन इमानदारों के घरों में कितना माल संडास में छुप्पा है बाकी सब ले दे कर बराबर |उधर येही अफसर और नेता शिकायत सुन लें की किसी बाबू की जेब में पचास रुपये की नोट है तो बाबू जेल के अन्दर |क्या साडी इमानदारी का ठेका बाबू वर्ग ने ही ले रखी है |क्या हम चंदन लागतें है तो इसलिए
केवल राम राम जपतें रहे , अपने पांडे जी को देखिये बड़ा लाल टीका लागतें है माथे पर लेकिन क्या मजाल है फाइल को बढ़ने दें बिना कुछ दक्षिणा लिए | मैं समझ गया वे गुरु जी की बात कर रहे थे माथे पर लाल टिका विनम्रता की प्रतिमुर्ती कि आप जब मिलोगे तो विनम्रता से खड़े हो जायेंगे किंतु फाइल पर जो बात जायेंगे तो बिना फाइव स्टार लिए उठेंगे नहीं |हनुमान जी के भक्त हैं संकट मोचन में जा कर एक ही चौपाई सीख सकें है
" राम दूआरे तुम रखवारे , होत ना आज्ञा बिन पैसा रे || यही गुनगुनाते रहतें है लोग समझ जातें है कि दरवाजे पर लाल टीका लगाये यह सख्स बिना पैसा के कोई आर्डर निकलने नहीं देगा
मैंने मुरारी लाल को कहा आप भी तो पेशकार हैं आप को दिल छोटा करने की क्या जरूरत है , वे बिफर गए " हाँ बाबू सवेरे से शाम तक टकटकी लगा कर देखे दस या पाँच के पत्तों के लिए उधर अगला संडास में सोना छिपाता फिरे ""
"यार लाल साहब ये बात जम नहीं रही , संडास में सोना चांदी की बात ठीक नहीं' मैंने कहा
मुरारी लाल बोले जा कर देखो तो उनके संडासों में , जरा इन पाखण्ड विकास अधिकारीयों को देखो मैंने कहा' यार खंड विकास कहो" वे भड़क कर बोले" खंड कहो या पाखंड बात एक ही है ब्लाक डेव्हलपमेंट के नाम पर क्या ये डेव्हलपमेंट
को ब्लाक नहीं कर रह्नें है कोई पूछने वाला है ये साल दो साल कि नौकरी में इतना विकास कहाँ से हो रहा है कि तमाम लक्सारी कारें इन्हे ही मिल जा रही है और तुर्रा ये कि उन्ही गाडीयों पर उत्तर प्रदेश सरकार भी लिखवा दे रहे है यदि मैं राज्यपाल होता तो i am pleased to seize all वेहिकल्स कि जब माल सरकार का ही है तो इधर लाओ" |तब तक मुरारी लाल पर नशा हाबी हो चुका था बोले ये बाबू वर्ग की ट्रेजेडी है की वो बाबू है इस लिए बदनाम है बाद होने के लाख फायदे बदनाम होने के लाख नुक्सान |बीबी वेतन और रिश्वत की पाई पाई वसूलने के बाद भी समझती है की उससे कुछ छिपा कर रकम डंप की गयी है अफसर साला भी येही समझता है की हो ना हो कुछ रकम का फील गुड बाबू ने कर दिया है
उस पर से ये पे कमिशान की कामिनी रिपोर्ट जिसने एरीअर की ख़बरों को भी लीक कर दिया है , दामाद बेटियों को तंग करते हैं , बहुएं बेटों को एहन तक की चुन्नू मुन्नू को भी पता हो गया है की वेतन बढ़ गया है सबकी एक ही रट है बाबू जी से कहो - कहो कहते जाओ बू वर्ग तो अभ्शाप्त है केवल सुनने के लिए दफ्तर में अफसर की फरमाइशें पुरी करते रहो अपनी दस पैसों में से तथा घर पर बेटो बेटियों दामादों से सच पुछो तो नफरत
हो गयी है ये बाबू डम से पहले की बात कुछ और थी घुस कमिसन में इमानदारी से सकदे में अट्ठानी मिलाती थी तो उसमे बरक्कत थी अब उसमे इन बे ईमानों ने सैकडो मुसीबतें खडी कर दी है | सैकडा खाने वालों ने हमारी अट्ठानी भी कहानी शुरू कर दी |आज सैकडा खाने वाला इमानदार है तथा अट्ठानी खाए जो वो बदनाम
हम बाबू वर्ग तो घर पब्लिक परिवार सबके सामनें नंगे हो गए हमारी रिश्वत के रेट वही नेहरू जी के ज़माने के ही चलें आ रहे हैं वही पाँच दस रुपये सरकार इन रुपयों का चलन बंद कर दे तो शायद कुछ बदलाव आए हमसे अच्छे तो भिखारी हैं जो आटा- चावल के स्थान पर एक दो रुपये लेने शुरू कर दिए पर हम पेशकार वर्ग अभी भी तारीखों को देने के नाम पर वही पुराना दो रुपया ही लेते चले आ रहे हैं है कोई ऎसी कॉम जो पब्लिक हित में अपना इम्मन दस पाँच में बेचती हो
मैं मुरारी लाल की इस व्यथा को सुन कर " करुना कर के करुणानिधी रोए " की स्थिती में आ गया हूँ है कोई सुनने वाला है? जो इस अनोमाली को पे कमीशन के सामने ला कर पे बैंड की तर्ज पर ले बैंड या दे बैंड बना कर इन मासूम बाबू वर्ग को निर्दयी अफसर साहूकारों के चंगुल में जा रहे उनकी अट्ठानी को कपंन्शेट कर सके
3 टिप्पणियां:
satya likha hai, aaina hai aapka lekh
बहुत ही खुब लिखा हे आप ने, लेकिन मे तो इन पंगो से बहुत दुर हु, मुझे तो पढ कर मजा आ गया
बाबू की व्यथा तो लाज़मी ही है क्योंकि जब वो नौकरी में आया होगा तब " नमक के दरोगा " के मुंशी बंशीधर की तरह ही शायद उसके परिजनों ने समझाया होगा कि '' सरकारी नौकरी में तनख्वाह की तरफ़ ज्यादा ध्यान नही देना चाहिए क्योंकि वो तो पूर्णमासी के चाँद की तरह होता है,जो महीने में एक बार दिखायी देता है फिर घटते -घटते लुप्त हो जाता है इसी कारण इसमे बरक्कत नही होती बल्कि इसे पीर का मजार समझना चाहिए और निगाह हमेशा चढावे पर होनी चाहिए उसी में असली बरक्कत होती है.'' अब बेचारा बाबू भी क्या करे ? मजार में चढावा तो आता है लेकिन चादर की साइज़ नही बढ़ी वो जस की तस ही रही ... कोई तो चादर की साइज़ बढ़ाने की भी सोचे...अगले पे कमीशन में ये मुद्दा भी उठाना चाहिए.
एक टिप्पणी भेजें