एक प्रश्न मेरे मनोमस्तिष्क में बहुत दिनों से परेशान करता है की जिस रामराज्य के के बारे में गांधी जी से लेकर हमारे संस्कृति के खेवन पार्टियाँ बड़े जोर शोर से बातें करतीं हैं , जिसके बारे में गोस्वामी दास जी ने उत्तर कांड में बड़ी अच्छी अच्छी बातें लिखी है क्या उसमे वास्तविक लोकतंत्र था तथा जनता की मनः स्थिति क्या थी ? एक दो प्रसंगों के आधार पर मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचता हूँ की आज से भी बुरी और भयग्रस्त मानसिकता वाली जनता उन दिनों की थी जो किसी अन्याय का विरोध नहीं करती थी केवल राजतन्त्र के प्रति निष्ठावान जनता थी जो राजा ने कर दिया वोही ठीक है
बल्कि महाराज दशरथ के दिनों में जनता अपनी भावना अच्छे तरीके से प्रकट करती थी प्रभु राम के वनवास की ख़बर सुन कर भारत के साथ राम को मनाने काफी संख्या में नर नारी का समुदाय जंगल में चला आया था बड़े मनावन व मनुहार के बाद जन मानस वापस लौटा था
किंतु धोबी प्रसंग के पश्चात जब राज धर्म का पालन करते हुए सीता को गर्भावस्था में बनवास हुआ तो वही जनता ने कहीं भी कोई विलाप या विरोध प्रदर्शन कर के अपनी असहमती नहीं जताई जनता के इन दो प्रसंगों में अलग अलग व्यवहार को क्या माना जाय की जनता पहले उसी राम सीता के वनवास होने पर वन में मनाने चली गई किंतु माता सीता के निष्काशन का उस पुर जोर से विरोध नहीं हुआ ?
क्या दशरथ महाराज के समय की जनता ज्यादा स्वतंत्र थी अपनी भावनाओं को प्रगट करनें हेतु या राम राज्य में अधिक कठोर व विकेन्द्रित शाशन प्रणाली के चलते जनता में कोई खास प्रतिक्रिया नहीं हुई ?
इतना अच्छाई वाले राज्य में भी एक धोबी ऎसी अनर्गल प्रतिक्रया करता है इससे यह सिध्ध होता है की राम जैसे मर्यादा वाले राजा के विरोध में वैयक्तिक प्रतिक्रया हो सकती थी तो आज जो ओछी राजनीती हो रही है उसे नजरअंदाज करना ही पडेगा तथा उसे सामान्य ही माना जाएगा
यदी आज के समाज में किसी धोबी ने ऎसी वैसी टिप्पणी की होती तो सत्ताधारी दल के लोग उसे अपनी पुलिस या अपनी पार्टी के लोगो से धोबी के प्रति विरोध प्रगट करते और धोबियों के विरूद्ध दंगे भड़क जाते धोबी का नार्को टेस्ट करा कर सी बी आई उससे जुर्म कबुल्वाती की उसने किस पार्टी के कहने पर ऎसी वासी बातें कही है
खैर ये सब तो आज होता
उन दिनों में उस धोबी के प्रति लोगों की प्रतिक्रिया क्या रही थी ? इसके बारे में मैंने कहीं नहीं पढ़ा है की क्या उसका सामाजिक बहिस्कार हुआ था या नहीं या उसके पड़ोसियों ने हुक्का पानी बंद किया था या नहीं हनुमान जी जैसा बलशाली देवता के रहते हुए कोई धोबी ऐसा वैसा कैसे कह दिया इससे ऐसा लगता है की प्रशाशन का ज्यादा खौफ जनता में नहीं था
खैर कुछ गंभीर प्रश्न जो अनुत्तरित हैं १ क्या युगों युगों से जनता का चरित्र ऐसा ही रहा है की वह शासकों के क्रिया कलापों के प्रति इसी प्रकार उदासीन रही है ?
क्या हम किसी ऐसे यूटोपिया की कल्पना कर सकतें है जो रामराज्य से भी बेहतर हो जिसमे ऎसी घटना न हो
क्या भगवान् राम को डर था की यदि धोबी की घटना पर उन्होंने जल्द से जल्द कोई प्रतिक्रिया नहीं की तो जन सामान्य में यह चर्चा का विषय बन जायेगी
मैं चाहूंगा की इस पर आप अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें किंतु मेरे मतानुसार जनता किसी की सगी नहीं है वोह भी अवसरवादी होती है तथा स्मरंशाक्ती शुन्य होती है जैसा की यहाँ राम के वनगमन और सीता वनवास में दो भिन्नताएं देखने को मिल रहीं है तथा नारी के प्रती लोगों की विपरीत सोच खास तौर से यौन शुचिता को ले कर वैसी की वैसी ही है तो क्या राम राज्य और क्या आज का राज्य ?????? कोऊ नृप होए हमें क्या हानि ........ यह भी मानसिकता उसी काल से चली आरही है नहीं बदला है जनता की सोच बस बदला है तो शासकों के शासन की स्टाइल ठीक कहा ना
5 टिप्पणियां:
आपके ब्लाग पर आना अच्छा लगा। आपकी लेखन शैली प्रभावी है। सक्रियता बनाए रखें। शुभकामनाएं।
कभी फुरसत हो तो मेरे चिट्ठे पर भी एक नजर डालने का कष्ट करें।
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gyan drushti ke madhyam se jiye to koi bhi samay ram rajy se kamtar nahi
apni post se word varification hata leve
setting men jakar comments click kare aur word varification option ko hata le
चाहे जो भी यह बात बिल्कुल स्पष्ट है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दोनों ही इंगित काल खंडों में थी ! धोबी आम प्रजा की नुमायन्दगी कर रहा होता है जब वह अपने राजा के व्यक्तिगत मामले में भी टांग अदाने में ज़रा भी उंच नीच का विचार नही करता और आश्चर्य यह कि राजा भी उसकी बात गंभीरता से ले लेता है -यह रामराज्य में ही सम्भव है .
कुछ खामियां निकालकर भगवान् राम के पूरे चरित्र पर तोहमत नही लगाई जा सकती है . खामियां तो हर युग , धर्मं और युगपुरुषों मैं मिल जायेंगी . इससे पूरे धर्मं और उसके आदर्शों को ग़लत कह देना ठीक नही . वर्षों से जो मान्यता और विशवास इन पर है वह निराधार और बेबुनियाद नही है .
मेरा आशय जनता की मानसिकता को दो भिन्न परिस्थितियों में भिन्न प्रतिक्रिया दर्शाने की और था मर्यादा पुरुषोत्तम के निर्णय पर नहीं क्या आज कल जनता इसी प्रकार प्रतिक्रिया दिखा कर बड़े अहम् निर्णयों पर चुप नहिन्रह जाती जहाँ उसे कड़ी प्रतिक्रिया दिखानी चाहिए होती है
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