मंगलवार, 7 अक्टूबर 2008

संत बड़ा की आश्रम

आए दिन किसी न किसी संत महाराज की चर्चा अख़बारों के माध्यम से होती रहती है कुछ भव्य तो कुछ जघन्य ,हाल के दिनों में पंजाब यू । पी व गुजरात के संतों के आश्रमों की गतिविधियाँ सुर्खियों में हैं वस्तुतः ये आश्रम इन संतों के दौलतखाने हैं जिन्हें हम सब आश्रम व कुतिया समझाने की भूल कर बैठते हैं जिसका जितना बड़ा आश्रम जितने शहरों में आश्रम विदेशों में आश्रम वह उतने बड़े आशाराम यानि भक्तों की आश जगाने उन्हें लुभाने का कार्य आसानी से कर सकतें है | अब तो एक योगी जो आए दिन एक चीवर और एक लंगोटी तथा ५० रुपये की पादुका पहन कर लोगों को योगः चित वृति निरोधः का संदेश देते अनुलोम विलोम करते हैं मात्र १०० करोड़ की लागत से आश्रम तथा शोध संस्थान खोलने के लिए अलख जगाये हैं जिस दिन उनकी यह आशा पूरी हो जायेगी हनुमान जी को लड्डू चढाना पडेगा |ऐसे ऐसे वीतरागी संत जो पैसे को हाथ तक नहीं लगाते सिर्फ़ सोने व चांदी के सिंहासनों पर बैठ कर धवल धोती ओढ़ कर प्रवचन करतें है यदि उनके भव्य आश्रम न होते तो क्या उनकी कोई पहचान होती शायद नहीं , आज कल संत की पहचान उसके आश्रम व भंडारे तथा मालदार भक्तों के द्वारा ही होती है इसलिए आश्रम तो भव्य होना ही चाहिए ......
इसी बात पर मुझे एक कथा स्मरण आ रही है किसी राज्य में एक राजा ने सोचा की वह किसी संत से
दीक्षा ले फ़िर राजा के मन में ख्याल आया कि राजा को दीक्षा देने वाला संत का आश्रम भी भव्य होना चाहिए ताकि जनता को भी रश्क हो सके की राजा के गुरु काश्रम कितना भव्य है सो राजाने यह घोषणा कर दी की जो कोई संत आश्रम बनाना चाहे उसे राज्य की तरफ़ से सहायता दी जायेगी वह जितना जमीन चाहे उतना कब्जा कर ले व बता दे राज्य की तरफ़ से उसे आवश्यक मूलभूत सुबिधायें (infrastructure) प्रदान की जायेंगी फ़िर उसके बाद राजा उनमे से किसी भव्य आश्रम वाले संत से गुरुदीक्षा लेगें |जाहिर है माले मुफ्त दिले बेरहम की तर्ज पर तत्कालीन संतो के चेलों ने जमीं हथियाना शुरू कर दिया ऊँचे ऊँचे झंडे डंडे लगा कर राजा के लोग प्रगति की दैनिक समीक्षा उसी प्रकार कर रहे थे जैसे आज कल राज्य सरकार कानून व्यस्था की दैनिक समीक्षा करती हैं खैर ,राजा एक दिन बिना बताये गुप्त रूप से आश्रमों की भव्यता को ख़ुद जांचने जाता है तो पाता है कि एक पेड़ के नीचे एक संत ध्यान लगाये बैठा है राजा उनसे बोलता है कि हे महात्मन! आप ने आश्रम का निर्माण शुरू नहीं किया कहीं दिखाई नहीं दे रहा है ?
संत ने कहा मेरा आश्रम तो पहले से ही काफी भव्य बन कर तैयार है | राजा आश्चर्य में पड़ जाता है और कहता है कि जमीं तो आपने एलाट ही नहीं कराई फ़िर निर्माण कैसे हो गया नक्शा कहाँ पास हुआ !!!! इतने प्रश्नों को सुन कर संत बोले महाराज क्या जमीं एलाट करा कर दीवार खींचू, सारी दुनिया मेरा आश्रम है इसमे दीवार चला कर मैं इसे और छोटा कर दूँ इसमे कहाँ कि बुधिमानी है वैसे भी संत का काम बंधनों को काटना है न कि बंधनों में बंध जाना | शायद संत का इशारा वसुधैव कुटुम्बकं की और था |राजा को एहसास हो गया कि इस गुरु कि भव्यता तथा सोच कि विशालता अन्य गुरुओं से कहीं बहुत आगे है जो जमीन घेर कर बड़े आश्रमों को तैयार कराने में लगे है
क्या हमारी व आप कि सोच कभी इस तथ्य पर जायेगी कि इन बाबाओं महामंदालाधिशों के आश्रम अन्यायोपार्जित धन से बने हुएं है तथा इसमे अनाचार ही उपजेगा सदाचार कभी नहीं क्यों कि इन आश्रमों कि बुनियाद ही अन्यायोपार्जित धन व पूंजी से निर्मित है तथा इस में निवास कर रहे संत मंचों पर कुछ और हैं तथा असली में आश्रम के साम्राज्यवादी साशक मात्र हैं न कि साधक जो हम लोगों को तुच्छ साबित कर ग्लानि भर कर अपना उल्लू सीधा कर हमें मूंड रहे हैं
( सुधी पाठकों से क्षमा याचना सहित यदि संकेतों में उनके किसी गुरु का अपमान उन्हें प्रतीत हुआ हो लेख का आशय किसी व्यक्ति विशेष का अपमान करना कदापि नहीं है )